जब से भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत हुई है तब से ये चलन रहा है की किसी फिल्म को एक लम्बी कद काठी , हैंडसम पर्सनल्टी वाला व्यक्ति ही हिट करा सकता है जिसे हम लीड एक्टर या हीरो कहते हैं . दर्शकों ! जब से भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत हुई है तब से ये चलन रहा है की किसी फिल्म को एक लम्बी कद काठी , हैंडसम पर्सनल्टी वाला व्यक्ति ही हिट करा सकता है जिसे हम लीड एक्टर या हीरो कहते हैं लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे अभिनेता हुए जिन्होंने इस मिथक को तोडा और अपनी तरह के एक अलग ही अंदाज़ से न सिर्फ फिल्मों को हिट कराया बल्कि लोगों के बीच अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी। एक ऐसे ही अभिनेता हुए मराठी सिनेमा के दिग्गज कॉमेडियन दादा कोंडके.जो न सिर्फ बतौर ऐक्टर कामयाब हुए बल्कि मराठी फ़िल्मों के प्रोड्यूसर के तौर पर भी सफलता के कई झण्डे गाड़े।
दादा कोंडके का असली और पूरा नाम कृष्णा खंडेराव कोंडके था। चूँकि उनका का जन्म 8 अगस्त 1932 को गोकुलाष्टमी के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम भगवान कृष्ण के नाम पर रखा गया । उनके पिता का नाम खंडेराव कोंडके और माँ का नाम सखुबाई खंडेराव कोंडके था। उनके पिता नायगाँव स्थित एक कॉटन मिल में मजदूरी किया करते थे, साथ ही उनके परिवार की किराने की एक छोटी सी दुकान भी थी। दादा का परिवार मूल रूप से इंगावली गांव का रहने वाला था जो पुणे के निकट भोर में स्थित है।
दादा का बचपन मुंबई के नायगांव में बीता था और उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा भी यहीं से पूरी की थी। ये बचपन से ही छोटी मोटी गुंडागर्दी की वज़ह से नायगांव में काफी मशहूर थे और तब उन्हें लोग बंदवाले दादा भी कहा करते थे। एक इंटरव्यू में कोंडके ने खुद बताया था कि, “लालबाग में मेरा आतंक था और जो भी वहां बदमाशी करता था उस पर मेरा क्रोध बरसता था। कोई हमारे मोहल्ले में लड़की को छेड़ता तो मैं वहां पहुंच जाता था। सोडा वॉटर की बोतल, पत्थर और ईंटें, मैंने हर चीज के साथ लड़ाई की है।”
दादा कोंडके के घर की आर्थिक स्थिति काफी ख़राब थी उसपर से बड़े भाइयों के असमय निधन से घर संभालने की जिम्मेदारी भी उनके कंधों पर आ गई थी। कम उम्र में ही दादा ‘अपना बाजार’ नाम की एक लोकल ग्रॉसरी रिटेल चेन के शो रूम में 60 रुपये महीने के वेतन पर काम करने लगे। कम उम्र में ही अपनों को खो देने की वज़ह से दादा ने ज़िन्दगी को बहुत ही अच्छे से समझ लिया था, उन्होंने टूटने की बजाय हँसने हँसाने को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया और नौकरी के दौरान ही वे मुंबई के ‘सेवा दल’ नामक बैंड से जुड़ गये जहाँ उनकी मुलाक़ात नीलू फुले व राम नागरकर जैसे नामी रंगकर्मियों से हुई। जिसके बाद वे सेवादल के नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेने लगे। बाद में उन्होंने ‘दादा कोंडके एंड पार्टी’ नाम से एक ग्रुप बना लिया और शोज़ करने लगे। इसी दौरान उनकी मुलाकात लेखक वसंत सबानीस से हुई। वसंत सबनीस दादा के नाटक “खान खां पुर चा राजा” से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने दादा के अनुरोध पर “विच्चा मांझी पुरी कारा” नामक एक नाटक लिखा जिसने दादा के जीवन को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। इस नाटक की कामयाबी का आलम यह था कि साल 1965 से 1975 के बीच दादा कोंडके ने इसके लगभग 1500 शो किए थे। बाद में देश में आपातकाल लागू होने के बाद इसका मंचन रोक दिया। दरअसल इस नाटक को कांग्रेस विरोधी माना जाता था क्योंकि इस नाटक में इंदिरा गांधी का मज़ाक उड़ाया गया था। इस नाटक में उन्होंने डबल मिनिंग, सेक्सुअल कॉमेडी भी भर दी। हालांकि इससे नाटक तो हिट हो गया, लेकिन सबनिस को यह ठीक नहीं लगा। ख़ैर दादा ने इस नाटक का मंचन पूरे महाराष्ट्र में किया, और एक नाटककार के रूप में ख़ुब मशहूर भी हुए। इस नाटक की सफलता और दादा की पॉपुलरिटी को देखते हुए उन्हें फिल्मों से भी ऑफर मिलने लगे थे। जिसके बाद उन्होंने नाटकों के साथ-साथ फ़िल्मों में भी काम करना शुरू कर दिया।
दादा कोंडके की पहली फिल्म भालजी पेंढारकर की ‘तांबड़ी माटी’ थी जो साल 1969 में रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी हासिल किया था। साल 1971 में दादा की फ़िल्म ‘सोंगाड्या’ रिलीज हुई थी जिसने दादा को सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया और मराठी फिल्म इंडस्ट्री को एक नया कॉमेडियन भी मिल गया। हालांकि फ़िल्म सोंगाड्या को शुरुआत में अच्छे सिनेमा हॉल नहीं मिल सके थे क्योंकि उसी दौरान सदाबहार देव आनंद की “तेरे मेरे सपने” भी रिलीज़ हुई थी जिसकी वज़ह से ज़्यादातर सिनेमाघरों में उसी फ़िल्म के प्रदर्शन पर ज़ोर दिया जा रहा था। मुंबई के दादर स्थित कोहीनूर थियेटर ने तो चार हफ्ते पहले से बुकिंग के बावज़ूद उनकी फ़िल्म को लगाने से मना कर दिया था। इस बात को लेकर काफी विवाद हुआ और जब विवाद ज़्यादा बढ़ा तो दादा कोंडके बालासाहेब ठाकरे के पास पहुँच गए। जिसके बाद बाला साहेब के हस्तक्षेप से सोंगाड्या की स्क्रीनिंग हुई और फ़िल्म ज़बरदस्त सफल भी रही। दादा ने भी बालासाहेब के इस एहसान को हमेशा याद रखा और आजीवन शिवसेना से जुड़े रहे। दादा अक्सर बालासाहेब की कई सभाओं में शामिल होकर भाषण भी देते थे और दादा की पॉपुलरिटी की वज़ह से सभाओं में ख़ूब भीड़ भी होती थी।
बहरहाल इस फिल्म की सफलता से दादा का हौसला और बढ़ गया, जिसके बाद उन्होंने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखने का फ़ैसला किया। उनकी फ़िल्मों में मशहूर मराठी अभिनेत्री उषा चव्हाण मुख्य भूमिका में हुआ करती थीं। साथ ही राम-लक्ष्मण जैसे कुशल संगीतकार और जयवंत कुलकर्णी व महेंद्र कपूर जैसे गायक भी उनकी प्रोडक्शन कम्पनी से हमेशा जुड़े रहे। गायक महेंद्र कपूर के साथ दादा कोंडके की जोड़ी खूब पसंद की जाती थी। दादा कोंडके के लिए महेंद्र कपूर के गाए हुए गीत मराठी सिनेमा में काफी मशहूर भी हुए थे। साल 1972 में दादा की फ़िल्म ‘एकटा जीव सदाशिव’ रिलीज हुई थी। बताया जाता है कि महाराष्ट्र में इस फिल्म की हाइप इतनी जबरदस्त थी कि राज कपूर ने अपनी फिल्म बॉबी की रिलीज डेट टाल दी थी और ‘बॉबी’ पांच महीने देरी से रिलीज हुई थी।
दादा कोंडके अपनी एक्टिंग में डबल मीनिंग कॉमेडी की वज़ह से लोगों के बीच मशहूर थे। देखा जाए तो मराठी फिल्म इंडस्ट्री में द्विअर्थी संवादों की शुरूआत करने का श्रेय भी दादा कोंडके को ही जाता है। हालांकि इसकी वज़ह से उन्हें काफी दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। दरअसल संवाद के साथ-साथ दाद कोंडके की फिल्मों के टाइटल भी इतने अश्लील होते थे कि उन्हें पास करना ख़ुद सेंसर बोर्ड के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता था। कई बार द्विअर्थी संवादों के कारण, दादा की फिल्मों को सेंसर बोर्ड द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था लेकिन ऐसे में दादा अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल करके किसी प्रकार से मंजूरी ले ही लिया करते थे। दरअसल डबल मीनिंग डायलॉग्स ही उनकी फिल्मों की पहचान थी जिसके दर्शक वर्ग भी अलग ही होते थे। उनकी कुछ ऐसी ही फिल्मों में सोंगाड्या, एकता जीव सदाशिव, अंधाला मरातो डोला, पांडु हवलदार, तुम्च आम जमालम, राम राम गंगाराम,म और पलवा पलवी के नाम प्रमुख हैं। दादा कोंडके ने अपनी बेहद कामयाब फिल्म पांडु हवलदार को बाद में गुजराती में भी बनाया था। इस फ़िल्म में उन्होंने टाइटल रोल निभाया था जो इतना मशहूर हुआ था कि उसके बाद महाराष्ट्र में हवलदारों को पांडू नाम से ही पुकारा जाने लगा था। फ़िल्म पांडु हवलदार में उनके साथ अशोक सर्राफ की भूमिका भी ख़ूब पसंद की गयी थी। इस फिल्म ने अशोक सराफ के करियर को आगे बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मराठी के साथ-साथ दादा कोंडके ने हिंदी और गुजराती भाषाओं में भी फिल्में बनाईं। हिंदी फ़िल्मों की बात करें तो उन्होंने कुल चार फ़िल्में बनायी थीं जिनके नाम हैं तेरे मेरे बीच में, आगे की सोच, अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में और खोल दे मेरी जुबान। उनकी पहली हिंदी फिल्म तेरे मेरे बीच में उन्हीं की एक मराठी फ़िल्म की रीमेक थी।
दोस्तों दादा के भविष्य को लेकर ज्योतिषियों ने बताया था कि वे कभी सफल नहीं हो सकते लेकिन उन्होंने उन भविष्यवाणियों को ग़लत साबित कर दिया और सफलता की कई ऊँचाइयां हासिल की। दादा कोंडके की लगातार नौ फिल्में पच्चीस हफ्तों तक चलीं थीं यानि सिल्वर जुबली रहीं थीं और उनका नाम गिनिज बुक में भी दर्ज हुआ था। मज़े की बात कि जब दादा कोंडके की सात मराठी फिल्मों ने लगातार सिल्वर जुबली मनाई थी, तभी उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हो गया था। उसके बाद उनकी दो और मराठी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। ख़ास बात ये कि आज तक कोई भी निर्माता इस रिकॉर्ड के करीब भी नहीं पहुँच सका है। दादा कोंडके एक सफल निर्माता थे और उन्होंने कुल 16 फिल्मों का निर्माण किया था। साल 1994 में रिलीज हुई ‘सासरचम धोतर’ उनके द्वारा निर्मित आखिरी फिल्म थी जिसका निर्देशन भी उन्होंने ही किया था। दोस्तों दादा बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे। वे एक सफल अभिनेता, निर्माता- निर्देशक तो थे ही इसके अलावा वे एक गीतकार, संगीतकार और पटकथा लेखक भी थे। दादा के अभिनय की बात की जाये तो वह औरों से बिल्कुल हट के था। उनका कॉमिक स्टाइल बहुत से ऐक्टर ने अपनाया है। यहाँ तक कि गोविन्दा और लक्ष्मीकांत बेर्डे ने भी उनके अंदाज़ का कई बार बख़ूबी इस्तेमाल किया है। ऐक्टर राजपाल यादव भी कहते हैं कि वे दादा कोंडके का चरित्र करने की प्रबल इच्छा रखते हैं।
जीवन में इतनी सफलता के बावज़ूद अपने आख़िरी समय में दादा काफी अकेलापन महसूस करते थे। “एकता जीव” नामक एक किताब में दादा कोंडके ने अपने जीवन में कई चीजों का खुलासा किया था। जिसमें उन्होंने धन दौलत और शोहरत के बावज़ूद ख़ुद को अकेला कहा था। 14 मार्च 1998 को मुंबई के दादर में स्थित उनके रामनिवास आवास पर दिल का दौरा पड़ने से दादा कोंडके की मृत्यु हो गयी थी। जिस दौरान उनकी मृत्यु हुई थी वो ऐक्ट्रेस उषा चव्हाण के साथ अपनी फिल्म जरा धीर धारा में काम शुरू कर चुके थे लेकिन यह फिल्म कभी पूरी न हो सकी।
एक इंटरव्यू में दादा ने कहा था कि वो सीएम बनना चाहते हैं। दरअसल उन्हें पुरा विश्वास था कि बाल ठाकरे उन्हें ज़रूर ऐसा मौका देंगे लेकिन अफ़सोस कि ठाकरे साहब ने उन्हें विधायक तक नहीं बनाया।
बात करें दादा कोंडके के निजी जीवन की तो उनका विवाह नलिनी कोंडके से हुआ था, लेकिन कुछ ही सालों में उनका तलाक भी हो गया था। उन दोनों की तेजस्विनी नाम की एक बेटी भी हैं। कम लोगों को ही पता होगा कि मराठी अभिनेता अक्षय वाघमारे रिश्ते में दादा कोंडके के पोते लगते हैं जो अरुण गवली के दामाद भी हैं। साल 2020 में अरुण गवली की बेटी योगिता से अक्षय की शादी हुई थी।बिग बॉस मराठी सीजन 3 के साथ-साथ अक्षय ‘फत्तेशीकास्ट’, ‘बेधड़क’, ‘दोस्तीगिरी’ और ‘बस स्टॉप’ जैसी सुपरहिट मराठी फिल्मों में नजर आ चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘टी फुलरानी’ सीरीज में भी काम किया था।