Wed 15 Oct 2025

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: प्राकृतिक रेशों के नवाचार और आजीविका पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल हुई अर्चना चिटनिस


बुरहानपुर। नई दिल्ली स्थित भारतरत्न सी. सुब्रमण्यम सभागार में ‘‘भारत को एक सूत्र में पिरोनाःप्राकृतिक रेशे, नवाचार और आजीविका-उत्तर पूर्व और उससे आगे‘‘ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई। इस अवसर पर विधायक एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री श्रीमती अर्चना चिटनिस, डॉ. वर्नाली डेका (आईएएस), डॉ. पी. एस. पांडे और डॉ. ए. के. सिंह मंचासीन रही। यह आयोजन भारत की समृद्ध प्राकृतिक रेशा धरोहर, नवीनतम नवाचारों और सतत विकास के प्रति प्रतिबद्धता का एक महत्वपूर्ण प्रतीक रहा, जिसका प्राथमिक लक्ष्य उत्तर पूर्व भारत की अनूठी रेशा क्षमताओं को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से जोड़ना था।


संगोष्ठी में विदेश मामलों और वस्त्र मंत्रालय के राज्य मंत्री पबित्रा मार्गरिटा ने मुख्य अतिथि के रूप में सहभागी होकर अपने सारगर्भित संबोधन में भारत सरकार की महत्वाकांक्षी 5 एफ दृष्टि पर बल देते हुए कहा कि खेत से फैक्ट्री, फैक्ट्री से फेबरिक, फेबरिक से फैशन और फैशन से फॉरेन की प्र्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यह मॉडल एक सतत, निर्बाध और एकीकृत वस्त्र मूल्य श्रृंखला के निर्माण के लिए अत्यंत आवश्यक है, जो भारत को वैश्विक वस्त्र मानचित्र पर अग्रणी स्थान दिलाएगा।


प्राकृतिक रेशों को आत्मनिर्भर भारत का आधार बताया
संगोष्ठी में श्रीमती अर्चना चिटनिस ने “भारत को एक सूत्र में पिरोनाः प्राकृतिक रेशे, नवाचार और आजीविका-उत्तर पूर्व और उससे आगे” विषय पर कहा कि प्राकृतिक रेशे न केवल भारत की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक हैं, बल्कि यह आत्मनिर्भर भारत की दिशा में आर्थिक सशक्तिकरण का सशक्त माध्यम भी हैं। प्राकृतिक रेशे भारत की सांस्कृतिक पहचान के साथ-साथ आर्थिक सशक्तिकरण का सशक्त माध्यम हैं। श्रीमती चिटनिस ने कहा कि उत्तर-पूर्व और देश के अन्य क्षेत्रों में प्राकृतिक रेशों की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसे आधुनिक तकनीक और नवाचार से वैश्विक स्तर तक पहुँचाया जा सकता है।

“प्राकृतिक रेशों से न केवल पर्यावरण संरक्षण संभव है, बल्कि यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आजीविका के लिए नई संभावनाएँ भी खोलता है। श्रीमती चिटनिस ने कहा कि उत्तर-पूर्व सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक रेशों की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसे आधुनिक तकनीक और नवाचार के माध्यम से वैश्विक बाजारों तक पहुँचाया जा सकता है। उन्होंने महिला समूहों, कारीगरों और युवा उद्यमियों को इस दिशा में आगे आने का आह्वान किया ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई गति मिल सके। प्राकृतिक रेशों के उत्पादन और उपयोग से न केवल पर्यावरण की रक्षा होती है बल्कि यह आजीविका के नए अवसर भी सृजित करता है। हमें इस विरासत को सहेजते हुए भविष्य की पीढि़यों के लिए स्थायी विकास का मार्ग तैयार करना होगा।


संगोष्ठी में 19 राज्यों ने की सहभागिता
यह सम्मेलन डॉ. मृदुला ठाकुर प्रधान के संरक्षकत्व में आयोजित किया गया। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. अनुपम मिश्रा ने की। जबकि संपूर्ण सम्मेलन का सफल संयोजन डॉ. ज्योति वी. वस्त्रद द्वारा किया गया। सम्मेलन की सबसे बड़ी विशेषता इसकी व्यापक पहुँच और भागीदारी रही। देश के 19 राज्यों से प्रतिभागियों ने सक्रिय रूप से इसमें हिस्सा लिया, जिनमें हाथकरघा और हस्तशिल्प कारीगर, वैज्ञानिक शोधकर्ता, अकादमिक विशेषज्ञ और उद्यमी शामिल थे। इस अवसर पर आयोजित प्रदर्शनी में केले और पायनापल के रेशे से बने कपड़े के शर्ट और जैकेट को खूब सराहा बनाया।


इस विविध भागीदारी ने प्राकृतिक रेशों से संबंधित ज्ञान, अनुभव और नवाचारों के आदान-प्रदान के लिए एक सशक्त मंच प्रदान किया।
समापन उद्बोधन में डॉ. ज्योति वी.वस्त्रद ने देश की प्रगति और आजीविका के अवसरों को बढ़ावा देने हेतु तकनीकी नवाचार और हितधारकों के बीच सहयोग की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन केवल प्राकृतिक रेशा परंपरा का उत्सव नहीं था, बल्कि भविष्य में सामुदायिक और पर्यावरणीय रूप से स्थायी वस्त्र उद्योग की नींव रखने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था।

राष्ट्रीय मंच पर उत्तर पूर्व भारत की प्राकृतिक रेशों से जुड़ी संभावनाओं को सफलतापूर्वक प्रदर्शित करने के बाद कार्यक्रम का समापन डॉ. अनुपम मिश्रा, विभागाध्यक्ष (वस्त्र और परिधान डिजाइनिंग), सीसीएस, तुरा ने आभार व्यक्त किया।

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